Thursday, 31 October 2013

समेट लूँ

जी करता है सब कुछ समेट लूँ
पर जिदगी को कैसे समेट लूँ ?

अगर तू समा जाए मुझमें
तो मै बहुत कुछ समेट लूँ !

बहुत फासलें है हमारे दरमियाँ
तूम कहो तो थोडा समेट लूँ !

 फ़ैल जाऊं मैं पूरी दुनियांमें या
 दुनियां को मुझमें समेट लूँ ?

मैं  अकेला, आस पास कोई नहीं
तन्हाईको भला कैसे समेट लूँ ?

तुषार खेर 

Tuesday, 29 October 2013

आज कल !!

डिग्रीओं  का बोज ढो रहाँ  हूँ आज कल!
पढ़ा लिखा हूँ, पर  बेकार हूँ आज कल !!

संक्रमक रोग कि तरह हरतरफ फैला है !
पैसे खाने का ये  नया रोग आज कल !!

दुश्मनों से भी दोस्त दो क़दम आगे है
सीधा छाती पे करते हमला आज कल !!

अँधेरी गलियों में मैं अकेले खड़ा हूँ !
सायें का भी साथ नहीं हैं  आज कल !!

"पैसा ही सबकुछ है" कहे ये ज़माना
कैसे सम्हालूँ मैं ईमान आज कल !!

Monday, 28 October 2013

अच्छा लगता है!

क्या इंतज़ार करना अच्छा लगता है?
क्यूँ कहता है? "सबकुछ अच्छा लगता है!"

बगैर गलती के जो बन्दा झुक जाता है,
परवर दिगार  को वोही अच्छा लगता है!

मेरा कहा सबकुछ चुपचाप सुनता है,
इसीलिए मुझे आईना अच्छा लगता है!

जब भी मिलता है दिल दुखाता  है,
फिर भी वो सख्श अच्छा लगता है!

जब भी याद आता है, मुझे बहुत रुलाता है
उसका याद आना, फिर भी, अच्छा लगता है!

तुषार खेर 

Friday, 25 October 2013

तक़दीर

भले मेरी तक़दीर फकीरों जैसी है
फिर भी जिन्दगी अमीरों जैसी है

कभी यहाँ तो कभी वहां भटकता  है
मेरे मन की हालत समीर जैसी है

कल मेरी  सोने जैसी हो सकती है
चाहे मेरी आज पीतल जैसी है

राम भी मेरा और रहीम  भी मेरा है
मेरी सोच भी आज कबीर जैसी है

मोह माया के पाश मैं ऐसे फसे है
शायद हालत मेरी कैदी  जैसी है 

Sunday, 6 October 2013

ज़िन्दगी !!

दर दर की ठोकरें  खिला  रही है ये ज़िन्दगी !
न जाने कहाँ ले जा रही है ये ज़िन्दगी !!

रोज ही रामायण और रोज ही महाभारत !
रोज एक नया अध्याय  है ये ज़िन्दगी !!

कभी हारके जीताती है ,कभी जितके हराति है!
लगता है कोई खतरनाक खेल है ये  ज़िन्दगी  !!

कभी सुबह से  श्याम तक का हँसी सफ़र
कभी मध्यान में ही अस्त है ये  ज़िन्दगी  !!