न वो तो तेरी
सुनता है न ही मेरी सुनता है
उपरवाला तो बस
अपने मन की करता है
न मंदीर में
रहेता है न मस्जिद में रहेता है
खुदा अपना ठिकाना
कब जग-जाहिर करता है?
सूरज तो रोज
डूबता है और रोज निकलता है
पर अपने गम की
रात का कब सवेरा करता है?
कभी इस फुल को
चूमता है तो कभी उस फुल को चूमता है
नादान भंवरा कब
किसी फूलको हमेंशा अपनाया करता है
न हिन्दू को
छोड़ता है न मुसलमान को छोड़ता है
आतंकवादी का
हुम्ला कहाँ मजहब देखा करता है?
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